नई दिल्ली: भारत में धार्मिक और सामाजिक मुद्दों पर अक्सर चर्चाएं होती रहती हैं। इस बार, शंकराचार्य ने संघ प्रमुख मोहन भागवत पर तीखा बयान दिया है। उनका कहना है कि हिंदू धर्म और हिंदुओं की समस्याओं को समझने और महसूस करने में कुछ कमी है। शंकराचार्य के मुताबिक, भागवत को हिंदुओं के दर्द और संघर्ष का पूरी तरह से एहसास नहीं हो रहा है, जो आजकल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बहुत संवेदनशील समय में है।
शंकराचार्य का बयान
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने हाल ही में एक कार्यक्रम में कहा कि हिंदू धर्म की वर्तमान स्थिति और इसके धार्मिक अनुयायियों की कठिनाइयों के बारे में जो बातें हो रही हैं, उनमें भागवत जैसे धार्मिक विचारक या संगठन पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहे हैं। उन्होंने कहा, “आजकल हिंदू समाज का दर्द किसी को महसूस नहीं हो रहा है, खासकर वे लोग जो धर्म की बड़ी बातें करते हैं, जैसे कि भागवत, वे अब इस दर्द को नकारने लगे हैं।”
स्वामी जी ने यह भी जोड़ा कि हिंदू समाज में बढ़ती आध्यात्मिक और सामाजिक असमानताएं और धार्मिक भटकाव समाज को और भी अधिक मुश्किलों में डाल रहे हैं। उनका मानना है कि जो लोग धर्म की व्याख्याएं कर रहे हैं, वे सिर्फ धार्मिक आयोजनों और कथाओं पर ध्यान दे रहे हैं, जबकि समाज की वास्तविक समस्याएं नजरअंदाज हो रही हैं।
भागवत पर सवाल
शंकराचार्य ने भागवत के आधिकारिक दृष्टिकोण पर सवाल उठाया है। उनका कहना है कि हिंदू समाज को समर्पित किसी भी प्रमुख विचारक या धार्मिक नेता को केवल आध्यात्मिक विषयों पर ही नहीं, बल्कि समाज के व्यावहारिक और सामाजिक पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए। उन्होंने आरोप लगाया कि धार्मिक विचारक समाज की वास्तविक समस्याओं को हल करने के बजाय आध्यात्मिक मोक्ष के मुद्दों पर जोर दे रहे हैं, जबकि समाज में सामाजिक और आर्थिक असमानताएं बढ़ती जा रही हैं।
हिंदू धर्म के संकट और भविष्य
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने भारतीय हिंदू धर्म की वर्तमान स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा कि समाज में धार्मिक असहमति, आध्यात्मिक भटकाव, और असमानता तेजी से बढ़ रही है। उन्होंने यह भी कहा कि धार्मिक नेताओं और संस्थाओं को चाहिए कि वे समाज को जोड़ने और सुधारने के लिए काम करें, न कि केवल धार्मिक रीतियों और अनुष्ठानों तक सीमित रहें।
उन्होंने यह भी कहा कि अगर हिंदू धर्म और उसके अनुयायी सही मार्ग पर चलना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी जड़ों को फिर से समझने और अपने धर्म की वास्तविकता से जुड़ने की जरूरत है। उनका कहना था कि समाज में बढ़ रही धार्मिक असहमति को कम करने के लिए आध्यात्मिक जागरूकता और सामाजिक सुधार की आवश्यकता है।
शंकराचार्य का बयान:
शंकराचार्य का कहना है, “हमारे समाज में हिंदू धर्म को लेकर बहुत सी समस्याएं हैं। हालांकि, कुछ नेता और संगठन इस पर ध्यान देते हैं, लेकिन भागवत जी की ओर से हमें यह महसूस नहीं हो रहा है कि वह हिंदुओं के असली दर्द को समझ पा रहे हैं। वे केवल अपनी बातों से जनता को प्रभावित कर रहे हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति को समझने और सुधारने के लिए कदम नहीं उठा रहे हैं।”
शंकराचार्य का यह बयान हिंदू समाज में उत्पन्न हो रही नई सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है। उनका कहना है कि हिंदू धर्म के अनुयायी आज कई स्तरों पर संघर्ष कर रहे हैं—चाहे वह धार्मिक स्वतंत्रता की बात हो या फिर सांस्कृतिक संरक्षण की।
समाज में निरंतर बदलाव:
आज के दौर में भारत में हिंदू समाज के भीतर कई अलग-अलग आवाजें उठ रही हैं, जो उस वास्तविकता को उजागर करने का प्रयास कर रही हैं, जो शायद अब तक नज़रअंदाज की जा रही थीं। शंकराचार्य का बयान उसी सामाजिक और धार्मिक असंतोष का एक हिस्सा है, जो इन मुद्दों पर नए दृष्टिकोण और बदलाव की मांग करता है।
धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक संरक्षण के विषयों पर शंकराचार्य ने कहा, “आजकल हिंदू धर्म को बचाने की बात की जा रही है, लेकिन क्या वास्तव में इसे बचाने के लिए सही कदम उठाए जा रहे हैं? हमें केवल बयानबाजी से काम नहीं चलेगा, बल्कि ठोस कदमों की आवश्यकता है।”
भागवत का दृष्टिकोण:
इस बयान के बाद संघ प्रमुख मohan Bhagwat का दृष्टिकोण भी ज़रूरी है। मोहन भागवत को अक्सर हिंदू एकता और हिंदू समाज की प्रगति के लिए उनके विचारों के लिए जाना जाता है। हालांकि, शंकराचार्य का यह आरोप इस बात की ओर इशारा करता है कि समाज में कुछ लोग उनके विचारों से सहमत नहीं हैं और उनके दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं।
निष्कर्ष:
शंकराचार्य का बयान हिंदू समाज के भीतर के असंतोष को उजागर करता है और यह संकेत देता है कि एकता और सुरक्षा के नाम पर जिन मुद्दों को हल किया जा रहा है, वे सच्चे रूप में समाज के जमीनी दर्द को ठीक से महसूस नहीं कर पा रहे हैं। भागवत को लेकर इस तरह के आरोप यह दर्शाते हैं कि भारतीय समाज में आज भी बदलाव और सुधार की आवश्यकता है, जो केवल शब्दों से नहीं, बल्कि ठोस कार्यों से संभव हो सकता है।
क्या भागवत इस स्थिति का सही आकलन करेंगे, या फिर उनका ध्यान हिंदू समाज के जटिल और विविध मुद्दों पर नहीं जाएगा? यह समय ही बताएगा।